Monday, March 2, 2009

धुआँ


  दिल रहा धुआँ
माहोल हुआ धुआँ

आँखे कुछ ठंडी हुई
अश्क़ बना धुआँ

घर से जो उठा
दीवारें चढ़ा धुआँ

शाम भी धुंधली हुईजब
दिन ढला धुआँ

जीने के शिमोजर है
दिल दुआ धुआँ

माँ ने जब सदका किया
बनी बला धुआँ

खूब सजा दिल का रंग
उसकी कला धुआँ
*****
धुँआ उड़ा था
बहोतकुछ
बू भी
अनजानी सी
लोग जानते
तो बचा ही लेते

सुना है
कल रात
बस्ती मे
एक औरत
जला दी गई है


2 comments:

  1. बहुत गहराई है सोच में!

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  2. बहुत मार्मिक रचना.
    भाव सुन्दर

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